Monday, November 10, 2014

"मोदी" - समझने के लिए सीमाएं जरुरी

नरेंद्र मोदी , एक ऐसा नाम जिसे समझने में बहुत से लोगो ने बहुत जल्दी करी और उस समझ को अपने पास रख लिया, कुछ ने दूर से समझा,कुछ ने समझने के बाद उसे नासमझने का भरपूर प्रयास किया और कुछ ने समझने का प्रयास ही नहीं किया!

एक प्रयास किया है नरेंद्र मोदी या कहें किसी को भी परखने के लिए "समझ की सीमाएं" खींचने का! बादलों , समंदर और पर्वतों के द्वारा ! 

नारंगी बादलों की टोली देखी! 
काला,सफ़ेद,भूरा बादल आज नारंगी रंग में मदमस्त झूम रहा है! 
शायद परेशान है शायद खुश!
किसे पता? 
सिर्फ चेहरा ही, पहचान नहीं होता !

समंदर की लहरें,आज कुछ ज्यादा गुस्से में थी,
वापसी में कुछ मोती छोड़ के गयी थी!
शायद नाराज़ थी शायद प्यार में,
किसे पता?
कुछ पल का हिसाब ही , अंजाम नहीं होता!

दूर से नज़र पहाड़ पे पड़ी,कठोर विशाल, भयानक!

लेकिन मिट्टी,पेड़, झरना और फूल सब कुछ समेटे हुए
शायद बाहर से कठोर ,शायद अंदर से मुलायम?

किसे पता?
पत्थर हमेशा कठोरता का प्रमाण नहीं होता !


सिर्फ चेहरा ही, पहचान नहीं होता !



कभी देखने में दिक्कत हो तो जरुरी नहीं कि नज़र ही ख़राब हो , आईने में धूल भी जमी हो सकती है!

- रोहित जोशी





Wednesday, November 5, 2014

स्वच्छ भारत मिशन - सपना या हकीक़त !

स्वच्छ भारत मिशन शुरू हुए बहुत दिन हुए, बहुत कम समय लगा इस मिशन को समझने में लेकिन बहुत ज्यादा समय लगेगा इस मिशन को हकीकत बनते देखने में! मिशन शुरू हुआ और सब में कुछ अजीब सा अटपटा सा सन्देश देता हुआ आगे बढ़ा कि भाई अब सफाई भी कर लो! आपके लिए ही कह रहे हैं!
जब कुछ लोगो को टीवी पे देखा तो ख्याल आया -
भाई गज़ब हुआ
चमत्कार हो गया
आज साल में दूसरी बार लोगो को
देश से प्यार हो गया!
( साल का एकमात्र प्यार बस 15 अगस्त को आता है और 16 अगस्त को चला जाता है!)

इसी बीच एक पढ़ी लिखी प्रजाति का मानुस से मैंने पूछा तो बोलता है कि
भाई अब सब कुछ साफ़ साफ़ रखुंगा
कसम देश की है
सफाई के पल पल का हिसाब रखुंगा!

मज़ा सा आ गया ऐसी बातें सुन के लेकिन तभी उसने डकार लेते हुए खाली lays का पैकेट का पत्थर बनाते हुए कूड़ेदान पे निशाना लगाया और अंडर हैंड थ्रो कर दिया ! निशाना लगाया तो जोंटी रोड्स समझ के लेकिन निशाना सरकारी योजनाओं की तरह सही दिशा से कोसो दूर मंजिल को बस दूर से देख के निकल गया!
अब वो lays का पैकेट उसे दूर से निहार रहा था , अपनी मजिल से दूर .और उसने ohh Shit!  कहते हुआ नजर बचायी और आगे बढ़ गया ! और बिना कुछ कहे सब कुछ कह गया !
मैंने तुरंत बोला - भाई अभी तो सफाई की कसम खायी थी , अब रसम कब निभाओगे ,
जवाब आया - पैकेट पास में ही तो पढ़ा है , अब और कितना करवाओगे ?

गज़ब ! अदभुत !

उसके शब्द मैं निःशब्द !

स्वच्छ भारत मिशन - वाह ! अभियान की शुरुवात कुछ वैसी ही थी जैसे सचिन ने अख्तर की पहली ही बॉल पे स्ट्रैट ड्राइव "डाबर लाल दंतमंजन चौका" दे मारा हो ! और वो सचिन की कातिलाना स्ट्रैट ड्राइव पोज़! गज़ब! और लगा मानो जनता ने सचिन सचिन के नारों से मैदान को ऐसा एलेक्ट्रिफाई कर दिया हो कि सैमसंग स्मार्ट फ़ोन भी २ मिनट में फुल चार्ज हो जाये और साथ में २ दिन बैटरी बैक अप वो भी इंटरनेट चालू रहते हुए ! बड़ा भोकाली माहौल था ! कसम कोबी भेड़िया की!

खैर स्वच्छता मिशन एक बहुत ही अच्छी सोच है लेकिन इसे पूरा किसे करना है ? सरकार को ? सफाई कर्मचारियों को ? या स्वच्छता चैलेंज लेके अच्छी सी फोटो ( अच्छी का अभिप्राय कूड़े के साथ वाली फोटो से है) खिचाने वाली हस्तियों को?
इनमे से किसी को भी नहीं ! यह काम हर किसी है ! आपका है! हमारा है ! हम सबका है!
यह मिशन एक सोच को दिल में बसाने से है ! खुद को अनुशाषित बनाने का है ! वक़्त लगेगा लेकिन एक दिन सोच बदलेगी जब सार्वजनिक संपत्ति को लोग अपनी और देश की संपत्ति कहेंगे!
जिस दिन यह सोच आएगी , भारत बदल जायेगा !


वन्दे मातरम!

रोहित जोशी 

Thursday, June 26, 2014

मैं आरक्षण हूँ!

आज फिर से आरक्षण का मुद्दा राजनैतिक गलियारों की सैर करता हुआ सामान्य वर्ग को चिढ़ाते हुए आगे बढ़ गया !
एक सामान्य वर्ग के लिए आरक्षण क्या है यह वही बता सकता है जो 1 अंक से किसी परीक्षा में असफल हो जाता है और दूसरा  उससे 30 अंक कम में सफल ! शिक्षा में और नौकरी में आरक्षण कैसे योग्यता के साथ न्याय कर पाता है ? क्या यह योग्यता के चयन में "आरक्षण की रिश्वत" नहीं है ?
आज जब एक सामान्य वर्ग एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करता है तो सबसे पहले कुल पदों में सामान्य का प्रतिशत देख कर होसला खो बैठता है ! कल्पना करिये 30 पदों में सामान्य वर्ग के 12 पद ? क्या शेष 18 पदो पे आवेदन करने वाले आरक्षण के आधार पे सामान्य वर्ग से योग्यता में ऊपर हो गए ? ये कैसा सामान अवसर देने का तरीका है? जो जिस पद के योग्य नहीं है वो आरक्षण के आधार पे कैसे उस पद को पाने का अधिकार रखता है ?

आरक्षण दीजिये , उसे दीजिये जो आर्थिक आधार पे पिछड़ा हो, और आरक्षण आर्थिक हो! समाज ,जाति और धर्म पे नहीं ! आर्थिक आरक्षण विशेष वर्ग को आवेदन करने का अवसर दे और सुविधा भी ! लेकिन जब परीक्षण हो तब कसौटी सिर्फ योग्यता हो !

आरक्षण या कहें "सामान्य दर्द" को समझती कुछ पंक्तियाँ-

मैं आरक्षण हूँ!

मैं इस सदी के भारत का भाग्यविधाता हूँ,
कम मेहनत में परिणाम का दाता हूँ ,
मैं सामान्य श्रेणी का "रण" हूँ !  ....... मैं आरक्षण हूँ !

मैं जात-धर्म समाज के खेल का ज्ञानी हूँ,
हर "राजनैतिक" भविष्य का अंतरयामी हूँ,
मैं न दिखने वाले अंतर्विरोध का कारण हूँ !......... मैं आरक्षण हूँ !

मैं कहीं एक "सामान्य" मन की निराशा हूँ,
कहीं "विशेष" के लिए अवसरों का तमाशा हूँ !
मैं अंधरों में रौशनी का भक्षण हूँ ! ..........मैं आरक्षण हूँ !

मैं कभी "भावनाओं" की राजनैतिक प्रयोगशाला हूँ!
कभी "कुछ उम्मीदों" के बीच "जहर" का निवाला हूँ !
मैं भविष्य का सबसे बड़ा ग्रहण हूँ ! .............मैं आरक्षण हूँ !


मैं अवसरों के लिए भटकते हुए "मन" का "रोष" हूँ !
ज्ञानी समाज की नज़रों में आज भी निर्दोष हूँ!
मैं "योग्यता" को खरीदने वाला "अदृश्य धन" हूँ!  ..........मैं आरक्षण हूँ !
मैं बंटते हुए समाज के कण कण में हूँ ! ..........मैं आरक्षण हूँ !

सामान्य वर्ग , एक ऐसा वर्ग जिसे आरक्षण औषधि की आदत पढ़ गयी है ! वास्तव में सामान्य वर्ग कुछ नहीं है ! इसी वर्ग में से कभी जाट आरक्षण कभी गुज्जर आरक्षण तो कभी मराठा आरक्षण और न जाने कितने आरक्षण बन गए ! और धर्म के नाम पे आरक्षण तो हमारे देश के राजनैतिक सेकुलरिज्म की परीक्षा है जिसे देश ने हमेशा प्रथम श्रेणी ससम्मान उत्तीर्ण की है ! जल्द ही वक़्त आएगा जब ये सामान्य वर्ग भी अतिसामान्य वर्ग के अंतर्गत आरक्षण की श्रेणी के लिए संघर्ष करता दिखाई देगा ! आज़ादी के 67 साल बाद भी जिस देश में आरक्षण एक "अवसर" मात्र रह जाये उस देश में  आने वाले समय के पास सामाजिक संघर्ष के अलावा कुछ नहीं दिखाई देता !

अभी इतना ही , लेकिन इतना यकीन से कह सकता हूँ कि आने वाली "सामान्य" पीढ़ी समान अवसर के लिए संघर्ष करेगी और यह संघर्ष बहुत कठिन होगा !

- रोहित "सामान्य" जोशी

Wednesday, June 18, 2014

उस पहाड़ी पर एक, मेरा भी मकान था !

केदारनाथ में आई हिमालयी सुनामी को एक साल पूरा हो गया, आज भी वो भयानक दृश्य आँखों को भिगाते हुए आगे बढ़ लेता है! यह सुनामी अपने साथ बहुत कुछ बहाते हुए आगे बढ़ी थी !  इसी बाढ़ में कहीं किसी का पूरा परिवार था तो कहीं किसी के पूरे परिवार का सहारा !  बाढ़ के एक छोर पे किसी का बचपन बह रहा था तो दूसरे छोर पे किसी परिवार के अपने बच्चों के बचपन के सपने! उसी बाढ़ में किसी की आँखों ने उम्मीदों को छटपटाते हुए देखा तो किसी की आँखों ने अपना सब कुछ गंवाते हुए! उसमे जो भी मिला सब बिखर गया !

इसी बिखराव में एक मन को पढ़ने का प्रयास करती कुछ पंक्तियाँ -

उस पहाड़ी पर एक, मेरा भी मकान था !
ज्यादा कुछ नहीं बस, थोड़ा सा सामान था,
एक परिवार था जिसने उसे घर बनाया था
आवाज़ तो लगायी मैंने, पर सब कुछ सुनसान था,
उस पहाड़ी पर , एक मेरा भी मकान था!

एक आँगन भी था , मेरे बचपन की यादें लिए,
वो मुस्कुराते पल और उनसे हुई मुलाकातें लिए,
आँगन छोटा सही पर बड़ा दिल था उसका,
आज वही आँगन मुझसे ज्यादा परेशान था,
उस पहाड़ी पर एक मेरा भी मकान था !
आवाज़ तो लगायी मैंने पर सब कुछ सुनसान था !

वहां एक नन्ही सी परी की खिलखिलाहट भी थी,
नादान सी बातें और प्यारी मुस्कराहट भी थी ,
पता बताया न किसी ने  कि वो कहाँ छुपी थी,
पता नहीं क्यों , सारा शहर ही मुझसे अनजान था ,
उस पहाड़ी पर एक मेरा भी मकान था !
ज्यादा कुछ नहीं बस,थोड़ा सा सामान था !
उस पहाड़ी पर ,एक मेरा भी मकान था !

केदारनाथ में हुए हादसे में मरने वालों को श्रद्धांजलि!

- रोहित जोशी

Wednesday, June 11, 2014

फिर एक शाम गुज़र गयी

और इसी तरह आज की शाम भी गुज़र गयी! हर शाम गुजरने के बाद वो अपने साथ बहुत कुछ समेटे हुए चली जाती है लेकिन फिर से आती है कुछ नयी,कुछ अलग और कुछ कल की उम्मीदें लिए! कभी इस शाम में दिन भर की थकान दिखती है तो कभी इस शाम में आज का सुकून और कल की उम्मीदें दिखती हैं ! शायद हर शाम कुछ कह कर निकल जाती है और सुनने वाला बस कल की शाम का इंतज़ार करता हुआ कल जीने लगता है ! हर शाम कुछ कहते हुए निकलती है , कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं  कुछ शाम की बातें करते हुए !

शायद सबकी शाम कुछ ऐसे ही गुज़रती होंगी!

एक हताश दिन ,खुद को समझाता हुआ दिन - और फिर एक शाम गुज़र गयी !

ख्वाबों को झुठलाती हुई, फिर एक शाम गुज़र गयी !
खुद को बहकाती हुई , फिर एक शाम गुज़र गई !
आंसू भी बेमाने लगे , तेरे सैलाब के आगे,
यूँ सब को रुलाती हुई फिर एक शाम गुज़र गयी!
ख्वाबों को झुठलाती हुई , फर एक शाम गुज़र गयी !

एक और दिन कुछ उम्मीदें लिए,  एक और दिन कुछ हौसला लिए -  फिर एक शाम गुज़र गयी!

कुछ सपने सजाती हुई, फिर एक शाम गुज़र गयी,
अपनी ही धुन गाती हुई ,फिर एक शाम गुज़र गयी,
लड़खड़ाते कदमो ने साथ छोड़ा ही था ,
कि सारी थकान मिटाती हुई , फिर एक शाम गुज़र गयी!
कुछ सपने सजाती हुई फिर एक शाम गुज़र गयी!

एक और दिन घर परिवार से बहुत दूर ,एक और दिन आंसुओं में छुपी यादों के बीच - फिर एक शाम गुज़र गयी!

यादों के शहर बसाती हुई,फिर एक शाम गुज़र गयी,
पलकों में अश्क छुपाती हुई, फिर एक शाम गुज़र गयी,
यूँ ही आना रहेगा मेरी यादों में तेरा,
नयी शाम का भरोसा दिलाती हुई,फिर एक शाम गुज़र गयी!
यादों के शहर बसाती हुई,फिर एक शाम गुज़र गयी!
कुछ सपने सजाते हुए फिर एक शाम गुज़र गयी!

और इस तरह हर शाम कल का भरोसा देते हुए वक़्त के साथ आगे बढ़ लेती है! पीछे मुड़ के उस शाम को देखने का वक़्त भी नहीं मिलता कि एक नयी शाम दिन भर का सफर बताने को तैयार मिलती है ! कभी यही शामें कुछ फुर्सत के लम्हों में हल्की सी मुस्कराहट या आँखों की नमी में खुद को महसूस कराती मालूम पड़ती हैं!

चलिए अभी इतना ही! मेरी भी इसी तरह एक शाम गुज़री तो सोचा इस शाम को सलाम करता चलूँ ! फिर मिलेंगे इसी TFT और LCD की दुनिया में , एक नयी शाम के इंतज़ार में !

- रोहित जोशी

Saturday, June 7, 2014

हिंदी क्यों ? ठीक है ! लेकिन हिंदी क्यों नहीं ?

कुछ दिन पहले संसद में शपथग्रहण समारोह के दौरान सांसदों को अलग अलग भाषाओँ में शपथ लेते देखा! ख़ुशी हुई , भारत की सांस्कृतिक विरासत का अदभुत दृश्य था!भाषा सांस्कृतिक विरासत का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता है! संसद में मानो सभी भारतीय भाषाओ का पूजन हो रहा था, भारत की विविधता का पूजन हो रहा था !मराठी, गुजराती,कन्नड़,ओड़िया,गुजराती इत्यादि और हाँ हिंदी भी! हिंदी ?
फिर अगले दिन एक टीवी चैनल पे बहस होती है की प्रधानमंत्री ने हिंदी में शपथ क्यों ली?प्रधानमंत्री ने यह फैसला क्यों लिया कि विदेशी दौरे पर भी हिंदी ही बातचीत की भाषा होगी! गुजराती,तमिल मराठी आदि भाषाएँ क्यों नहीं? हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है! एक "बुद्धिजीवी" का कहना था कि विदेशी मामलो में हिंदी बोल के प्रधानमंत्री अपने वोट बैंक को संतुष्ट कर रहे हैं? हिंदी बोलने वाला वोट बैंक ? ये कब पैदा हुआ? आगे बढ़ कर वो बोलते हैं हिंदी सारा देश नहीं बोलता? प्रधानमंत्री हिंदी सब पर थोप रहे हैं?
यहाँ पर सरे बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि भारत में बोलने के साथ साथ निश्चित रूप से सबसे  ज्यादा समझने वाली भाषा हिंदी ही है! हिंदी कोई मिश्रित भाषा नहीं है!यह अपने आप में परिपूर्ण है! जब बुद्धिजीवी यह सवाल उठाते है कि हिंदी क्यों? तब इसका सबसे अच्छा उत्तर जो मेरे पास होता है वह है " हिंदी क्यों नहीं?"

क्षेत्रीय भाषा का सीधा सम्बन्ध उस समाज के अस्तित्व से है इसमें कोई दो राय नहीं है और इसका प्रचार प्रसार और संरक्षण उस क्षेत्रीय समाज की जिम्मेदारी है ! लेकिन हिंदी बचाने की जिम्मेदारी किसकी है? हिंदी किसकी भाषा है जब सभी की अपनी अपनी भाषा है? संस्कृत किसकी भाषा थी ? सबने अपनी भाषाएँ बना ली लेकिन संस्कृत की तरफ किसने देखा?यह सभी भाषाओं की जननी थी? कितना सम्मान मिला इसे ?अचानक से कैसे गायब हो गयी ?

यह बताना जरूरी हो जाता है कि यह बुद्धिजीवी तमिल भाषा के "समाजसेवी" थे!
3  साल चेन्नई में नौकरी करने वाले को समझ में आता है कि तमिल भाषायी हिंदी के प्रति कितने उदारवादी हैं?तमिलनाडु जहाँ सिर्फ दो तरह से लोगो को देखा जाता है - तमिल और हिंदी!आप भारत के किसी भी कोने से हो आप तमिल के लिए सिर्फ हिंदीवाला हैं! यह दोहरी मानसिकता क्यों?फिर वही बुद्धिजीवी हिंदी को इस तरह से क्यों देखते हैं? जब तमिलनाडु में सारे देश को हिंदी वाला और तमिलनाडु को तमिलवाला कहा जाता है?

मन में सवाल और बहुत सारे जवाब है लेकिन ज्यादा लम्बा लेख कोई पढता नहीं! इसलिए कभी विस्तार से कहीं और लिखने और बहस करने का मौका मिलेगा तो प्रयास किया जायेगा ! एक बात और है कि मैंने अंग्रेजी के बारे में नहीं लिखा! क्यों कि मुद्दा क्षेत्रीय भाषाओ और अकेली हिंदी का था! अंग्रेजी और हिंदी का संघर्ष कभी और लिखा जायेगा! यह बहुत बड़ा और कठिन संघर्ष है!

हिंदी को अकेला देख के दुःख हुआ तो लिखना जरूरी समझा! क्षेत्रीय भाषाएँ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं लेकिन यह संघर्ष हिंदी से क्यों? आने वाला समय अंग्रेजी भाषा से संघर्ष का है! अस्तित्व बचाने का है! संस्कृत ने सभी भाषाओ को जन्मा है और हम उसे बचाने में असफल ही रहे हैं! क्यों? यह क्यों का उत्तर अगर मिल गया तो सारी भाषाओ का संरक्षण संभव है!

अभी इतना ही, कहना बहुत कुछ था पर फिर कभी! अभी हिंदी को कुछ सहारा दिया , खुश हूँ!

- रोहित जोशी

Monday, June 2, 2014

बेटी,परिवार समाज और सरकार !


दिन बीत गए बदायूं की घटना हुए , सोचा था निर्भया के बाद सरकार को अपनी जिम्मेदारियों का कुछ एहसास हो गया होगा लेकिन नहीं, सरकार आज भी हैं लेकिन बिना आत्मा के,हमेशा की तरह  !

 आज फिर एक बार सरकारी तंत्र एक परिवार के दुःख में अपनी रोटियां सेखने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा ! बारी बारी से सभी अपने झूठे आंसुओं के साथ परिवार की ओर बढ़ तो रहे हैं लेकिन साथ में कैमरे और लिखित बयानों को ले जाना नहीं भूलते ! इससे एक कदम आगे बहन मायावती विमान सहित उतरती हैं और खुद को दलितों का मसीहा बताते हुए कुछ आंसू बहा लेती हैं ! तभी एक प्रश्न मन में उठता हैं कि अगर वो लड़कियां दलित ना होती तो माया बहन आंसू बहाने आती ? शायद नहीं ! बिलकुल भी नहीं ! उस परिवार की क्या दशा होगी जब हर 10 मिनट में एक अभिनेता (नेता) उन्हें एक बहुत ही बढ़िया अभिनय का नमूना पेश करता हो ! सब में होड़ लगी हैं कि कौन अच्छा अभिनेता हैं !

कुछ पंक्तियाँ परिवार की मनःस्थिति समझने की कोशिश करते हुए -

आंसू भी सूख गए अब तो,अब तुम आना बंद करो ,
बहुत हो गया अभिनय घर में, अभिनेता लाना बंद करो ,
दूर कहीं रहने दो हमको , अपने लोगो के साथ में ,
ये दुःख ही काफी हैं अपने,खेल खिलाना बंद करो !
बहुत हो गया अभिनय घर में ,अभिनेता लाना बंद करो!

अभी तो बढ़ रही थी वो,अभी तो पढ़ रही थी वो ,
सपने बिखर रहे थे उसके,फिर भी लड़ रही थी वो,
जाओ ले आओ वापस उसे,मुझे मनाना बंद करो,
खो गयी हैं बेटी मेरी,मुझे हसाना बंद करो !
ये दुःख हो काफी हैं अपने,खेल खिलाना बंद करो !
आंसू भी सूख गए अब तो,अब तुम आना बंद करो ,

उम्मीद हैं कभी ना कभी मीडिया परिवार के मन की स्थिति को समझ कर अपनी ना छूटने वाली क्रन्तिकारी हरकतों पे ध्यान देगा और कुछ रचनात्मक बदलाव करेगा! साथ ही उम्मीद कम हैं लेकिन हमारे राजनैतिक दलों को भी उस परिवार की तरह सोचना होगा और अभिनय से कोसों दूर रहते हुए सृजनात्मक बदलाव लाने होंगे !

अभी इतना ही इस उम्मीद के साथ कि समाज खुद अपने अंदर झांके और उपाय ढूंढें ! यही जरूरत भी है और समय का सन्देश भी !

- रोहित जोशी 

Friday, May 30, 2014

"वो" एक औरत !

आज फिर एक बलात्कार ! फिर एक दरिंदगी ! मोमबत्ती क्रांति कर लो लेकिन बिना मानसिकता बदले कैसे परिवर्तन लाओगे ? जितनी किसी की मानसिकता दोषी है उतना ही दोषी यह समाज है और उतना ही दोषी इस समाज का नजरिया! बलात्कार जिस्म ही नहीं मन को मारता है ! अंततः मरती औरत ही है , मरता उसका मन है !

एक प्रयास किया है कुछ पंक्तियों से उस औरत को समझने का ! उसके मन को पड़ने का,उसकी चिंताएं और दर्द समझने का ! "वो"  एक औरत !

आज फिर कहीं सुनसान में "वो" चीख भी दब जाएगी,
कुछ आंसुओं से होते हुए "वो" चुपके से सो जाएगी ,
हक़ीक़त से कहानी बनते वक़्त कहाँ लगता है,-2
फिर कहीं एक "वो" खुद को "नसीब" बनते पायेगी !
कुछ आंसुओं से होते हुए वो चुपके से सो जाएगी!

याद करती होगी वो भी, दूर अपने गाँव को ,
सूखे समाज की गर्मी और घर की छाँव को ,
जो दूर कहीं बैठी "वो"अब, खुद को कैसा पायेगी,
सिमटी अंधेरो में "वो" आज खुद से भी डर जाएगी
फिर कहीं एक "वो" खुद को "वो" बनते पायेगी!
फिर कहीं सुनसान में "वो" चीख भी दब जाएगी !

- रोहित जोशी

Thursday, May 29, 2014

बुद्धिजीवी और बुद्धिजीवी समाज



पहला लेख है हालांकि कवितायेँ और कुछ ग़ज़लें लिखी हैं लेकिन आजकल प्रचलन लेखो का है तो सोचा इसमें भी जोर आजमाइश की जाये !

ट्विटर में, टीवी में और समाज में एक अलग "प्रजाति" ने अचानक से जन्म लिया,जिसे अंग्रेजी में Intellectual और हिंदी में बुद्धिजीवी कहते हैं !सामान्यतः इन्हें किसी भी न्यूज़ चैनल में ज्ञान बांटते और क्रन्तिकारी हरकतें करते देखा जा सकता है ! यह समाज और समाजसेवी हमेशा ज्ञान से परिपूर्ण दिखाई देता है और लगातार किसी भी विषय पे बिना रुके थके ज्ञान बाटते चलता है ! मानो शिव जी की जटाओं से गंगा बह रही हो ! निस्वार्थ, स्वच्छ , निर्मल , पवित्र ! लेकिन इनमें से कोई भी शब्द वर्तमान के बुद्धिजीवी को परिभाषित नहीं करता ! ये अपना "मन" धन के हिसाब से बदलते रहते हैं ! इन्हें गंगा जी में मिलने वाले नाले के पानी के रूप में परिभाषित करना ज्यादा आसान और सम्पूर्ण रहेगा! चलिए आगे बढ़ते हैं -

बुद्धिजीवी या कहें Intellectual समाज दोनों शब्द स्वतः अपने लिए उपयोग करते हैं या किसी और से करवा लेते हैं और समाज की नज़रों में एक अलग जगह बनाने की कोशिश में दिखाई देते हैं !  दोनों ही भाषाओँ में यह शब्द कुछ ज्ञान या समझदारी का बोध कराता है लेकिन मौजूदा हालात और इस समाज की हालत देखते हुए आपको यकीन करना मुश्किल हो जाता है और सोच में पढ़ जाते हैं कि ऐसी कौन सी बाबा जी की बूटी थी जिसे पी के आज ये उस स्तर तक पहुंच गए ? आंकलन किया तो एक ही बात समझ आयी कि इन्हें कोई उत्तर दे तो कहाँ दे ? कैसे दे ? छरछरे पानी में बुलबुले तो बहुत से बन जाते हैं लेकिन देर तक नहीं रहते! बनते हैं और फूटते हैं , यही परिवर्तन है ! जो शायद अब महसूस हो रहा है !

वास्तव में भारत में तर्क और वितर्क किसी भी मुद्दे पे किया जा सकता है,यहाँ की जनता अपने में बहुत कुछ समेटे हुए है! पान की दूकान से ले कर चमचमाते शीशो के पीछे 8 से 5 की नौकरी करने वाले सभी  सारे मुद्दों पर तर्क वितर्क करने को तैयार रहते हैं ! सभी की राय अपने आप में अदभुत और अतुल्य है ! अनुरोध है कि सभी कि "राय" को दिग्गी चचा से जोड़ के ना देखा जाये ! आज सोशल मीडिया ने इस समाज को स्वयं भू बुद्धिजीवी समाज के सामने बहुत ही मजबूती से खड़ा कर दिया है! आज प्रतिस्पर्धा बुद्धिजीवी कुतर्क और अपने "आम" समाज के तर्क वितर्क के बीच है ! ख़ुशी है , गर्व है और भी बहुत कुछ है अब बाकी  भावनाएं समझ लीजिये !

अभी इतना ही , फिर लिखेंगे , फिर मिलेंगे !  TFT या LCD स्क्रीन पे फिर से मुलाकात होगी !

- रोहित जोशी